
यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच
है। नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा
कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध
तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की
रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था।
आपको यह जानकार आश्चर्य
होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई
लड़ाइयां भी लड़ी है। आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके
इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।
नाग साधुओं के नियम :-
वर्त्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है। वैसे तो हर
अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते
हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।
1- ब्रह्मचर्य
का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले
उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय
ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक
ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को
दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी
तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
2- सेवा
कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना
भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र
और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा
लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है।
दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा
करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।
3-
खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है,
वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को
अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म
करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।
4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं
होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा
साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा
साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की
अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है।
5- भस्म और
रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा
सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का
त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को
धारण करना होता है।
6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन
मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया
गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का
अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता
है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण
करना होता है।
7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए
पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा
साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही
सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता
है।
8- मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में
ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु
मंत्र पर आधारित होती है।
9- अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना,
किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही
प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को
पालन करना पड़ते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया :-
नाग
साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम
आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है।
उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग
जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है-
तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो
उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर
ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा
उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है
कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की
अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली
जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस
व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर
उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।
महापुरुष- अगर व्यक्ति
ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे
ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये
पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश)
होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं
के प्रतीक और आभूषण होते हैं।
अवधूत- महापुरुष के बाद नागाओं को
अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके
लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को
खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित
करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही
उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।
लिंग भंग- इस
प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना
कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों
में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे
होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के
साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे
किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।
नागाओं के पद और अधिकार- नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु
बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत,
श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर
और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है।
महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है।
इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और
पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है की महिला
नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर
स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले
में भी नहीं।
अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार :-
श्रंगार
सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता
है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य
प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की
उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के
मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग
हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते
हैं-
भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान
शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के
साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह
स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म
भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।

नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के
फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का
अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से
अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते
भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है।
तिलक- नागा साधु
सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का
प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान
रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी
बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं।
रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता
है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान
शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते
हैं। ये मालाएसाधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये
मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि
अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के
वारे-न्यारे हो जाते हैं।
लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही
होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण
हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के
तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की
लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।
हथियार- नागाओं को सिर्फ साधु
नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान
शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल
लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही
इनके लुक का भी हिस्सा हैं।
चिमटा - नागाओं में चिमटा रखना
अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है।
चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा
होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने
भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो
जाए।
रत्न- कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे
रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा
कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार
का आवश्यक हिस्सा होते हैं।
जटा- जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे
बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की
जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया
जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों
से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।
दाढ़ी- जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी
जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते
हैं।
पोषाक चर्म- जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को
वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते
हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के
कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास
जानवरों की खाल देखी जा सकती है।
नाग साधुओं का इतिहास :-
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी
थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा
और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी
यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य
आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य
शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और
शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में
शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था
देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा
पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने
मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों
का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र
शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।
आदिगुरू
शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक
शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर
दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार
चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम
या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने
लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान
कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए।
शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की
रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों
के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय
राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया
करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें
40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा
मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का
का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े :-
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन
अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन
के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें।
इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते
हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-
1.
श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में
स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं।
इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं
इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
2.
श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के
कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव
रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना
जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के
नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए
श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए
रुक जाती हैं।
3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में
स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ
धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास
मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद,
हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के
पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार
नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया
था।
4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र
में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन
अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम
कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
5.
श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में
पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं।
इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी
अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
6.
श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में
स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद,
हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े
की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान
केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी,
साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद,
हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस
अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका
प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य,
ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं
इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
8.श्री
नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 में अहिल्या-गोदावरी संगम पर
स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है
और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और
इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
9.
श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री
मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी
आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास
था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था। परंतु 1848 में
शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए।
श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के
नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज
भी यह स्नान नासिक में ही होता है।
10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा
अखाड़ा:- इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें
सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या
ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर,
भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
11. श्री
उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर
स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए
हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
12. श्री निर्मल पंचायती
अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 में स्थापित हुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के
समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी
स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक
साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग,
हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
13. निर्मोही अखाड़ा:-
निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के
मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और
बिहार में
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