राजस्थान के लोकवाद्य (Rajasthani Instruments) - Gyan Ghar

GK tricks, GK short Tricks, Shot tricks, general knowladge,

Tuesday, 29 April 2014

राजस्थान के लोकवाद्य (Rajasthani Instruments)
















मानव जीवन संगीत से हमेशा से जुड़ा रहा है। संगीत मानव के विकास के साथ
पग-पग पर उपस्थित रहा है। विषण्ण ह्मदय को आह्मलादित एवं निराश मन को
प्रतिपल प्रफुल्लित रखने वाले संगीत का अविभाज्य अंग है- विविध-वाद्य
यंत्र। इन वाद्यों ने संगीत की प्रभावोत्पादकता को परिवर्धित किया और उसकी
संगीतिकता में चार चाँद लगाए हैं। भांति-भाँति के वाद्ययंत्रों के सहयोगी
स्वर से संगीत की आर्कषण शक्ति भी विवर्किद्धत हो जाती है।


भारतीय संगीत में मारवाड़ में मारवाड़ के विविध पारंपरिक लोक-वाद्य अपना
अनूठा स्थान रखते हैं। मधुरता, सरसता एवं विविधता के कारण आज इन वाद्यों ने
राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम की है।
कोई भी संगीत का राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय समारोह या महोत्सव ऐसा नहीं
हुआ, जिसमें मरु प्रदेश के इन लोकवाद्यों को प्रतिनिधत्व न मिला है।


मारवाडी लोक-वाद्यों को संगीत की दृष्टि से पॉच भागों में विभाजित किया जा
सकता है- यथातत, बितत, सुषिर, अनुब व धन। ताथ वाद्यों में दो प्रकार के
वाद्य आते हैं- अनुब व धन।


अनुब में चमडे से मढे वे वाद्य आते हैं, जो डंडे के आधात से बजते हैं। इनमें नगाडा, घूंसा, ढोल, बंब, चंग आदि मुख्य हैं।


लोहा, पीतल व कांसे के बने वाधों को धन वाध कहा जाता है, जिनमें झांझ, मजीरा, करताल, मोरचंगण श्रीमंडल आदि प्रमुख हैं।


तार के वाधों में भी दो भेद हैं- तत और वितत। तत वाद्यों में तार वाले वे
साज आते हैं, जो अंगुलियों या मिजराब से बजाते हैं। इनमें जंतर, रवाज,
सुरमंडल, चौतारा व इकतारा है। वितत में गज से बजने वाले वाद्य सारंगी,
सुकिंरदा, रावणहत्था, चिकारा आदि प्रमुख हैं। सुषिर वाद्यों में फूंक से
बजने वाले वाद्य, यथा-सतारा, मुरली, अलगोजा, बांकिया, नागफणी आदि।




उपरोक्त वाद्यों का संक्षिप्त परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है-




ताल वाद्य - राजस्थान के ताल वाद्यों में अनुब वाद्यों की बनावट तीन प्रकार की है यथा -


  • वाद्य जिसके एक तरु खाल मढी जाती है तथा दूसरी ओर का भाग खुला रहता है। इन वाद्यों में खंजरी, चंग, डफ आदि प्रमुख हैं।

  • वे वाद्य जिनका घेरा लकडी या लोहे की चादर का बना होता है एवं इनके दाऍ-बाऍ भाग खाल से मढे जाते हैं। जैसे मादल, ढोल, डेरु डमरु आदि।

  • वे वाद्य जिनका ऊपरी भाग खाल से मढा जाता है तथा कटोरीनुमा नीचे का भाग
    बंद रहता है। इनमें नगाडा, धूंसौं, दमामा, माटा आदि वाद्य आते हैं। इन
    वाद्यों की बनावट वादन पद्वदि इस प्रकार है -

  • कमटटामक बंब - इसका
    आकार लोहे की बड़ी कङाही जैसा होता है, जो लोहे की पटियों को जोङ्कर बनाया
    जाता है। इसका ऊपरी भाग भैंस के चमड़े से मढा जाता है। खाल को चमड़े की
    तांतों से खींचकर पेंदे में लगी गोल गिङ्गिड़ी लोहे का गोल घेरा से कसा
    जाता है। अनुब व घन वाद्यों में यह सबसे बडा व भारी होता है। प्राचीन काल
    में यह रणक्षेत्र एवं दुर्ग की प्राचीर पर बजाया जाता था। इसे एक स्थान से
    दूसरे स्थान पर ले लिए लकड़ी के छोटे गाडूलिए का उपयोग किया जाता है। इसे
    बजाने के लिए वादक लकड़ी के दो डंडे का प्रयोग करते हैं। वर्तमान में इसका
    प्रचलन लगभग समाप्त हो गया है। इसके वादन के साथ नृत्य व गायन दोनों होते
    हैं।



  • कुंडी - यह आदिवासी जनजाति का प्रिय
    वाद्य है, जो पाली, सिरोही एवं मेवा के आदिवासी क्षेत्रों में बजाया जाता
    है। मिट्टी के छोटे पात्र के उपरी भाग पर बकरे की खाल मढी रहती है। इसका
    ऊपरी भाग चार-छः इंच तक होता है। कुंडी के उपरी भाग पर एक रस्सी या चमड़े
    की पटटी लगी रहती है, जिसे वादक गले में डालकर खड़ा होकर बजाता है। वादन के
    लिए लकड़ी के दो छोटे गुटकों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी नृत्यों के
    साथ इसका वादन होता है।



  • खंजरी - लकड़ी का छोटा-सा घेरा
    जिसके एक ओर खाल मढ़ी रहती है। एक हाथ में घेरा तथा दूसरे हाथ से वादन किया
    जाता है। केवल अंगुलियों और हथेली का भाग काम में लिया जाता है। घेरे पर
    मढी खाल गोह या बकरी की होती है। कालबेलिया जोगी, गायन व नृत्य में इसका
    प्रयोग करते हैं। वाद्य के घेरे बडे-छोटे भी होते है। घेरे पर झांझों को भी
    लगाया जाता है।



  • चंग - एक लकड़ी का गोल घेरा, जो भे
    या बकरी की खाल से मढ़ा जाता है। एक हाथ में घेरे को थामा जाता है, दूसरे
    खुले हाथ से बजाया जाता है। थामने वाले हाथ का प्रयोग भी वादन में होता है।
    एक हाथ से घेरे के किनारे पर तथा दूसरे से मध्यभाग में आघात किया जाता है।
    इस वाद्य को समान्यतः होलिकोत्सव पर बजाया जाता है।



  • डमरु - यह मुख्य रुप से मदारियों व
    जादूगरों द्वारा बजाया जाता है। डमरु के मध्य भाग में डोरी बंघी रहती है,
    जिसके दोनो किनारों पर पत्थर के छोटे टुकड़े बंधे रहते हैं। कलाई के संचालन
    से ये टुकड़े डमरु के दोनो ओर मढ़ी खाल पर आघात करते हैं।



  •  - लोहे के गोल घेरे पर बकरे की
    खाल चढी रहती है। यह खाल घेरे पर मढ़ी नहीं जाती, बल्कि चमड़े की बद्धियों
    से नीचे की तरफ कसी रहती है। इसका वादन चंग की तरफ होता है। अंतर केवल इतना
    होता है कि चमडे की बद्धियों को ढ़ील व तनाव देकर ऊँचा-नीचा किया जा सकता
    है।



  • डेरु - यह बङा उमरु जैसा वाद्य है।
    इसके दोनों ओर चमङा मढ़ा रहता है, जो खोल से काफी ऊपर मेंडल से जुङा रहता
    है। यह एक पतली और मुड़ी हुई लकड़ी से बजाया जाता है। इस पर एक ही हाथ से
    आघात किया जाता है तथा दूसरे हाथ से डोरी को दबाकर खाल को कसा या ढीला किया
    जाता है। इस वाद्य का चुरु, बीकानेर तथा नागौर में अधिक प्रचलन है। मुख्य
    रुप से माताजी, भैरु जी व गेगा जी की स्तुति पर यह गायी जाती है।



  • ढाक - यह भी डमरु और डेरु से
    मिलता-जुलता वाद्य है, लेकिन गोलाई व लंबाई डेरु से अधिक होती है। मुख्य
    रुप से यह वाद्य गु जाति द्वारा गोढां (बगङावतों की लोककथा) गाते समय बजाया
    जाता है। झालावाङा, कोटा व बूँदी में इस वाद्य का अधिक प्रचलन है। वादक
    बैठकर दोनो पैरों के पंजो पर रखकर एक भाग पतली डंडी द्वारा तथा दूसरा भाग
    हाथ की थाप से बजाते है।



  • ढ़ोल - इसका धेरा लोहे की सीघी व
    पतली परतों को आपस में जोङ्कर बनाया जाता है। परतों (पट्टियों) को आपस में
    जोङ्ने के लिये लोहे व तांबे की कीलें एक के बाद एक लगाई जाती है। धेरे के
    दोनो मुँह बकरे की खाल से ढ़के जाते हैं। मढ़े हुए चमड़े को कसरन के लिए
    डोरी का प्रयोग किया जाता है। ढोल को चढ़ाने और उतारने के लिए डोरी में
    लोहे या पीतल के छल्ले लगे रहते हैं। ढोल का नर भाग डंडे से तथा मादा भाग
    हाथ से बजाया जाता है। यह वाद्य संपूर्ण राजस्थान में त्योहार व मांगलिक
    अवसरों पर बजाया जाता है। राजस्थान में ढोली, मिरासी, सरगरा आदि जातियों के
    लोग ढोल बजाने का कार्य करते हैं। ढोल विभित्र अवसरों पर अलग-अलग ढंग से
    बजाया जाता है, यथा- कटक या बाहरु ढोल, घोङ्चिड़ी रौ ढोल, खुङ्का रौ ढोल
    आदि।



  • ढोलक - यह आम, बीजा, शीशम, सागौन और
    नीम की लकड़ी से बनता है। लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल
    डोरियों से कसी रहती है। डोरी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने
    में काम आते हैं। यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है। यह एक प्रमुख लय
    वाद्य है।



  • तासा - तासा लोहे या मिट्टी की परात
    के आकार का होता है। इस पर बकरे की खाल मढ़ी जाती है, जो चमड़े की पटिटयों
    से कसी रहती है। गले में लटका कर दो पहली लकड़ी की चपटियों से इसे बजाया
    जाता है।



  • धूंसौ - इसका घेरा आम व फरास की
    लकड़ी से बनता है। प्राचीन समय में रणक्षेत्र के वाद्य समूह में इसका वादन
    किया जाता था। कहीं-कहीं बडे-बडे मंदिरों में भी इकसा वादन होता है। इसका
    ऊपरी भाग भैंस की खाल से मढ. दिया जाता है। इसकों लकड़ी के दो बडे-डंडे से
    बजाया जाता है।



  • नगाङा - समान
    प्रकार के दो लोहे के बड़े कटोरे, जिनका ऊपरी भाग भैंस की खाल से मढा जाता
    है। प्राचीन काल में घोड़े, हाथी या ऊँट पर रख कर राजा की सवारी के आगे
    बजाया जाता था। यह मुख्य-मुख्य से मंदिरों में बजने वाला वाद्य है। इन पर
    लकड़ी के दो डंडों से आघात करके ध्वनि उत्पत्र करते हैं।



  • नटों की ढोलक - बेलनाकृत काष्ठ की
    खोल पर मढा हुआ वाद्य। नट व मादा की पुडियों को दो मोटे डंडे से आधातित
    किया जाता है। कभी-कभी मादा के लिए हाथ तथा नर के लिए डंडे का प्रयोग किया
    जात है, जो वक्रता लिए होता है। इसके साथ मुख्यतः बांकिया का वादन भी होता
    है।



  • पाबूजी के मोटे - मिट्टी के दो बड़े
    मटकों के मुंह पर चमङा चढाया जाता है। चमड़े को मटके के मुँह की किनारी से
    चिपकाकर ऊपर डोरी बांध दी जाती है। दोनों माटों को अलग-अलग व्यक्ति बजाते
    हैं। दोनों माटों में एक नर व एक मादा होता है, तदनुसार दोनों के स्वर भी
    अलग होते हैं। माटों पर पाबूजी व माता जी के पावड़े गाए जाते है। इनका वादन
    हथेली व अंगुलियों से किया जाता है। मुख्य रुप से यह वाद्य जयपुर, बीकानेर
    व नागौर क्षेत्र में बजाया जाता है।



  • भीलों की मादल - मिट्टी का बेलनाकार
    घेरा, जो कुम्हारों द्वारा बनाया जाता है। घेरे के दोनो मुखों पर हिरण या
    बकरें की खाल चढाई जाती है। खाल को घेरे से चिपकाकर डोरी से कस दी जाती है,
    इसमें छल्ले नही लगते। इसका एक भाग हाथ से व दूसरा भाग डंडे से बजाया जाता
    है। यह वाद्य भील व गरासिया आदिवासी जातियों द्वारा गायन, नृत्य व गवरी
    लोकनाट्य के साथ बजाया जाता है।



  • रावलों की मादल - काष्ठ खोलकर मढा
    हुआ वाद्य। राजस्थानी लोकवाद्यों में यही एक ऐसा वाद्य है, जिसपर पखावज की
    भांति गट्टों का प्रयोग होता है। दोनों ओर की चमड़े की पुङ्यों पर आटा
    लगाकर, स्वर मिलाया जाता है। नर व मादा भाग हाथ से बजाए जाते हैं। यह वाद्य
    केवल चारणों के रावल (चाचक) के पास उपलब्ध है।



धन वाद्य - यह वाद्य प्रायः ताल के लिए प्रयोग किए जाते हैं। प्रमुख वाद्यों की बनावट व आकार-प्रकार इस प्रकार है -


  • करताल - आयताकार लकड़ी के बीच में
    झांझों का फंसाया जाता है। हाथ के अंगूठे में एक तथा अन्य अंगुलियों के साथ
    पकड़ लिया जाता है और इन्हें परस्पर आधारित करके लय रुपों में बजाया जाता
    है। मुख्य रुप से भक्ति एवं धार्मिक संगीत में बजाया जाता है। मुख्य रुप से
    भक्ति एवं धार्मिक संगीत में इसका प्रयोग होता है।



  •       खङ्ताल - शीशम, रोहिङा या खैर की लकड़ी के चार
    अंगुल चौड़े दस अंगुल लंबे चिकने व पतले चार टुकड़े। यह दोनो हाथों से
    बजायी जाती है तथा एक हाथ में दो अफकड़े रहते हैं। इसके वादन में कट-कट की
    ध्वनी निकलती है। लयात्मक धन वाद्य जो मुख्य रुप से जोधपुर, बाडमेंर व
    जैसलमेंर क्षेत्रों में मांगणयार लंगा जाति के लोग बजाते हैं।



  •      धुरालियो - बांस की आठ-दस अंगुल लंबी व पतली
    खपच्ची का बना वाद्य। बजाते समय बॉस की खपच्ची को सावधानी पूर्वक छीलकर बीच
    के पतले भाग से जीभी निकाली जाती है। जीभी के पिछले भाग पर धागा बंधा रहता
    है। जीभी को दांतों के बीच रखकर मुखरंध्र से वायु देते हुए दूसरे हाथ से
    धागे को तनाव व ढील (धीरे-धीरे झटके) द्वारा ध्वनि उत्पत्र की जाती है। यहा
    वाद्य कालबेलिया तथा गरेसिया जाति द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है।



  •     झालर - यह मोटी घंटा धातु की गोल थाली सी होती है। इसे डंडे से आघादित किया जाता है। यह आरती के समय मंदिरों में बजाई जाती है।



  •      झांझ - कांसे, तांबे व जस्ते के मिश्रण से बने
    दो चक्राकार चपटे टुकङों के मध्य भाग में छेद होता है। मध्य भाग के गड्डे
    के छेद में छोरी लगी रहती है। डोरी में लगे कपड़े के गुटको को हाथ में
    पकङ्कर परस्पर आधातित करके वादन किया जाता है। यह गायन व नृत्य के साथ
    बजायी जाती है।



  •      मंजीरा - दो छोटी गहरी गोल मिश्रित धतु की बनी
    पट्टियॉ। इनका मध्य भाग प्याली के आकार का होता है। मध्य भाग के गड्ढे के
    छेद में डोरी लगी रहती है। ये दोनों हाथ से बजाए जाते हैं, दोनों हाथ में
    एक-एक मंजीरा रहता है। परस्पर आघात करने पर ध्वनि निकलती है। मुख्य रुप से
    भक्ति एवं धर्मिक संगीत में इसका प्रयोग होता है। काम जाति की महिलाएँ
    मंजीरों की ताल व लय के साथ तेरह ताल जोडती है।



  •      श्री मंडल - कांसे के आठ या दस गोलाकार चपटे
    टुकङों। रस्सी द्वारा यह टुकड़े अलग-अलग समानान्तर लकडी के स्टैण्ड पर बंधे
    होते हैं। श्रीमंडल के सभी टुकडे के स्वर अलग-अलग होते हैं। पतली लकड़ी को
    दो डंडी से आघात करके वादन किया जाता है। राजस्थानी लोक वाद्यों में इसे
    जलतरंग कहा जा सकता है।



  •      मोरचंग - लोहे के फ्रेम में पक्के लाहे की जीभी
    होती है। दांतों के बीच दबाकर, मुखरंध्र से वायु देते हुए जीभी को अंगुली
    से आघादित करते हैं। वादन से लयात्मक स्वर निकलते हैं। यह वाद्य चरवाहों,
    घुमक्कङों एवं आदिवासियों में विशेष रुप से प्रचलित वाद्य है।



  •      भपंग - तूंबे के पैंदे पर पतली खाल मढी रहती है।
    खाल के मध्य में छेद करके तांत का तार निकाला जाता है। तांत के ऊपरी सिरे
    पर लकड़ी का गुटका लगता है। तांबे को बायीं बगल में दबाकर, तार को बाएँ हाथ
    से तनाव देते हुए दाहिने हाथ की नखवी से प्रहार करने पर लयात्मक ध्वनि
    निकलती है।



  •      भैरु जी के घुंघरु - बड़े गोलाकार घुंघरु, जो
    चमड़े की पट्टी पर बंधे रहते हैं। यह पट्टी कमर पर बाँधी जाती है। राजस्थान
    में इसका प्रयोग भैरु जी के भोपों द्वारा होता है, जो कमर को हिलाकर इन
    घुंघरुओं से अनुरंजित ध्वनि निकालते हैं तथा साथ में गाते हैं।



  • सुषिर वाद्य - राजस्थान में सुषिर वाद्य काष्ठ व पीतल के बने होते हैं। जिसमें प्रमुख वाद्यों का परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है -



  •      अलगोजा - बांस के दस-बारह अंगुल लंबे टुकड़े,
    जिनके निचले सिरे पर चार छेद होते हैं। दोनों बांसुरियों को मुंह में लेकर
    दोनों हाथों से बजाई जाती है, एक हाथ में एक-एक बांसुरी रहती है। दोनों
    बांसुरियों के तीन छेदों पर अंगुलियाँ रहती हैं। यह वाद्य चारवाहों द्वारा
    कोटा, बूंदी, भरतपुर व अलवर क्षेत्रों में बजाया जाता है।



  •    करणा - पीतल का बना दस-बारह फुट लंबा वाद्य, जो
    प्राचीन काल में विजय घोष में प्रयुक्त होता था। कुछ मंदिरों में भी इसका
    वादन होता है। पिछले भाग से होंठ लगाकर फूँक देने पर घ्वनि निकलती है।
    जोधपरु के मेहरानगढ़ संग्रहालय में रखा करणा वाद्य सर्वाधिक लंबा है।



  •    तुरही - पीतल का बना आठ-दस फुट लंबा वाद्य, जिसका
    मुख छोटा व आकृति नोंकदार होती है। होंठ लगाकर फुँकने पर तीखी ध्वनि निकलती
    है। प्राचीन काल में दुर्ग एवं युद्व स्थलों में इसका वादन होता था।



  •   नड़ - कगोर की
    लगभग एक मीटर लंबी पोली लकड़ी, जिसके निचले सिरे पर चार छेद होते हैं। इसका
    वादन काफी कठिन है। वादक लंबी सांस खींखकर फेफङों में भरता है, बाद में न
    में फूँककर इसका वादन होता है। फूँक ठीक उसी प्राकर दी जाती है, जिस प्रकार
    कांच की शीशी बजायी जाती है। वादन के साथ गायन भी किया जाता है। वा वाद्य
    जैसलमेर में मुख्य रुप से बजाया जाता है।



  •   नागफणी - सर्पाकार पीतल का सुषिर
    वाद्य। वाद्य के मुंह पर होठों द्वारा ताकत से फूँक देने पर इसका वादन होता
    है। साधुओं का यह एक धार्मिक वाद्य है तथा इसमें से घोरात्मक ध्वनि निकलती
    है।



  •   पूंगी/बीण - तांबे के निचले भाग में बाँस या लकड़ी
    की दो जड़ी हुई नलियाँ लगी रहती हैं। दोनो नलियों में सरकंडे के पत्ते की
    रीठ लगाई जाती है। तांबे के ऊपरी सिरे को होठों के बीच रखकर फूँक द्वारा
    अनुध्वनित किया जाता है।



  •   बांकिया - पीतल का बना तुरही जैसा ही वाद्य, लेकिन
    इसका अग्र भाग गोल फाबेदार है। होठों के बीच रखरकर फूंक देने पर तुड-तुड
    ध्वनि निकलती है। यह वाद्य मांगलिक पर्वो पर बजाया जाता है। इसमें स्वरों
    की संख्या सीमित होती है।



  • मयंक - एक बकरे की संपूर्ण खाल से बना वाद्य, जिसके
    दो तरु छेद रहते हैं। एक छेद पर नली लगी रहती है, वादक उसे मुंह में लेकर
    आवश्यकतानुसार हवा भरता है। दूसरे भाग पर दस-बारह अंगुल लंबी लकड़ी की चपटी
    नली होती है। नली के ऊपरी भाग पर छः तथा नीचे एक छेद होता है। बगल में
    लेकर धीरे-धीर दबाने से इसका वादन होता है। जोगी जाति के लोग इस पर भजन व
    कथा गाते हैं।



  •     मुरला/मुरली - दो नालियों को एक लंबित तंबू में
    लगाकर लगातार स्वांस वादित इस वाद्य यंत्र के तीन भेद हैं: - आगौर, मानसुरी
    और टांकी। छोटी व पतली तूंबी पर निर्मित टांकी मुरला या मुरली कहलाती है।
    श्रीकरीम व अल्लादीन लंगा, इस वाद्य के ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। बाड़में
    क्षेत्र में इस वाद्य का अधिक प्रचलन है। इस पर देशी राग-रागनियों की
    विभिन्न धुने बजायी जाती है।



  •      सतारा - दो बांसुरियों को एक साथ निरंतर स्वांस
    प्रक्रिया द्वारा बजाया जाता है। एक बांसुरी केवल श्रुति के लिए तथा दूसरी
    को स्वरात्मक रचना के लिए काम में लिया जाता है। फिर घी ऊब सूख लकड़ी में
    छेद करके इसे तैयार किया जाता है। दोनों बांसुरियों एक सी लंबाई होने पर
    पाबा जोड़ी, एक लंबी और एक छोटी होने पर डोढ़ा जोङा एवं अलगोजा नाम से भी
    जाना जाता है। यह पूर्ण संगीत वाद्य है तथा मुख्य रुप से चरवाहों द्वारा
    इसका वादन होता है। यह वाद्य मुख्यतया जोधपुर तथा बाड़मेर में बजाया जाता
    है।



  •     सिंगा - सींग के आकार का पीपत की चछर का बना
    वाद्य। पिछले भाग में होंठ लगाकर फूँक देने पर बजता है। वस्तुतः यह सींग की
    अनुक्रम पर बना वाद्य है, जिसका वादन जोगी व साधुओं द्वारा किया जाता है।



  •    सुरगाई-सुरनाई - दीरी का यह वाद्य ऊपर से पहला व
    आगे से फाबेदार होता है। इसके अनेक रुप राजस्थान मे मिलते हैं। आदिवासी
    क्षेत्रों में लक्का व अन्य क्षेत्रों में नफीरी व टोटो भी होते हैं। इसपर
    खजूर या सरकंडे की पत्ती की रीढ लगाई जाती है। जिसे होंठों के बीच रखकर
    फूँक द्वारा बजाया जाता
    है।





No comments:

Post a Comment